मनोज श्रीवास्तव सहायक निदेशक                                    सूचना एवं लोकसंपर्क विभाग

हम स्वयं ही स्वयं से क्या और क्यों के प्रश्नों में कनफ्यूज हो जाते हैं

मन में संकल्प करें कि इसे करना ही है। स्वयं हलचल में न आएं, आपकी हलचल अनेक अज्ञानियों को हलचल में लाएंगे। इसलिए हम अचल रहें और अपने फलक और झलक से निर्भय बने रहें। इसके बाद वे लोग अपने आप चुप हो जाएंगे, कुछ भी बोल न सकेंगे। अपने निश्चय बुद्धि के संकल्प से निश्चय के संकल्प में रहें और संशय बुद्धि न रहें। यदि इस निश्चय और नशे में रहें तो वह लोग आपको नमस्कार करेंगे।

स्नेह की निशानी है समानता, स्मृति स्वरूप अर्थात स्वयं को समान बनने का अनुभव करना। जब स्नेहयुक्त रहकर योग युक्त बन जाएंगे तब सर्व प्रकार की प्रकृति और माया के आकर्षण से परे हो जाएंगे।।                            समान बनने की भावना और श्रेष्ठ कामना तो रखते हैं, लेकिन हर प्रकार की माया के वारों का सामना नहीं कर सकते हैं। हम मन से, वाणी से, कर्म से और तन मन व धन से कर्तव्य में सहयोगी बन जाते हैं क्योंकि सदा यौगिक स्थिति में रहते हैं। यदि हम किसी प्रश्न से विचलित नहीं है और प्रसन्न हैं तो दूसरों को भी प्रसन्न कर सकते हैं। लेकिन स्वयं ही क्वेश्चन में रहेंगे तो दूसरे हमसे जरूर पूछेंगे। जब कोई क्वेश्चन करता है तब हम स्वयं ही स्वयं से क्या और क्यों के प्रश्नों में कनफ्यूज हो जाते हैं। मन में विचार चलता है, हां कहा तो गया है, लिखा तो हुआ है, होना तो चाहिए लेकिन दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं, क्योंकि हम स्वयं अपने से असंतुष्ट हैं। इसलिए कहा जाता है कि डरो मत, लोग क्या कहेंगे कैसे कहेंगे यह सोचकर किनारा न कर लें। उनसे डर के मारे किनारा न करें। अगर उलटा प्रोपेगैंडा करेंगे, तो उनकी उलटा बोल अनेकों को सुलटा बना देंगे।

 

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